सबरिमलय मंदिर विश्व के सबसे बड़े तीर्थस्थलों में से एक है, और यहाँ प्रतिवर्ष 4 से 5 करोड़ श्रद्धालु आते हैं। यह मंदिर भगवान अय्यप्पन को समर्पित है। सबरिमलय केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से १७५ किमी की दूरी पर पम्पा है और वहाँ से चार-पांच किमी की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने वनों के बीच, समुद्रतल से लगभग १००० मीटर की ऊंचाई पर शबरीमला मंदिर स्थित है। सबरीमला शैव और वैष्णवों के बीच की अद्भुत कड़ी है। मलयालम में 'शबरीमला' का अर्थ होता है, पर्वत। वास्तव में यह स्थान सह्याद्रि पर्वतमाला से घिरे हुए पथनाथिटा जिले में स्थित है। पंपा से सबरीमला तक पैदल यात्रा करनी पड़ती है। यह रास्ता पांच किलोमीटर लम्बा है। सबरीमला में भगवान अयप्पन का मंदिर है। शबरी पर्वत पर घने वन हैं। इस मंदिर में आने के पहले भक्तों को ४१ दिनों का कठिन व्रत का अनुष्ठान करना पड़ता है जिसे ४१ दिन का 'मण्डलम्' कहते हैं। कम्बन रामायण, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कन्दपुराण के असुर काण्ड में जिस शिशु शास्ता का उल्लेख है, अयप्पन उसी के अवतार माने जाते हैं। कहते हैं, शास्ता का जन्म मोहिनी वेषधारी विष्णु और शिव के समागम से हुआ था।
                                    
                                    
                                    
                                    
                                    
                                    
                                    
                                    
                                        उन्हीं अयप्पन का मशहूर मंदिर पूणकवन के नाम से विख्यात 18 पहाडि़यों के बीच स्थित इस धाम में है, जिसे सबरीमला श्रीधर्मषष्ठ मंदिर कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि परशुराम ने अयप्पन पूजा के लिए सबरीमला में मूर्ति स्थापित की थी। कुछ लोग इसे रामभक्त शबरी के नाम से जोड़कर भी देखते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि करीब 700-800 साल पहले दक्षिण में शैव और वैष्णवों के बीच वैमनस्य काफी बढ़ गया था। तब उन मतभेदों को दूर करने के लिए श्री अयप्पन की परिकल्पना की गई। दोनों के समन्वय के लिए इस धर्मतीर्थ को विकसित किया गया। आज भी यह मंदिर समन्वय और सद्भाव का प्रतीक माना जाता है। यहां किसी भी जाति-बिरादरी का और किसी भी धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आ सकता है। मकर संक्रांति और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के संयोग के दिन, पंचमी तिथि और वृश्चिक लग्न के संयोग के समय ही श्री अयप्पन का जन्म माना जाता है। इसीलिए मकर संक्रांति के दिन भी धर्मषष्ठ मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। हम मकर संक्रांति के दिन ही वहां पहुंचे। यह मंदिर स्थापत्य के नियमों के अनुसार से तो खूबसूरत है ही, यहां एक आंतरिक शांति का अनुभव भी होता है।
                                    
                                    
                                    
                                        जिस तरह यह 18 पहाडि़यों के बीच स्थित है, उसी तरह मंदिर के प्रांगण में पहुंचने के लिए भी 18 सीढि़यां पार करनी पड़ती हैं। मंदिर में अयप्पन के अलावा मालिकापुरत्त अम्मा, गणेश और नागराजा जैसे उप देवताओं की भी मूर्तियां हैं उत्सव के दौरान अयप्पन का घी से अभिषेक किया जाता है। मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण होता है । परिसर के एक कोने में सजे-धजे हाथी खड़े थहोते हैं। पूजा-अर्चना के बाद सबको चावल, गुड़ और घी से बना प्रसाद 'अरावणा' बांटा जाता है । मकर संक्रांति के अलावा नवंबर की 17 तिथि को भी यहां बड़ा उत्सव मनाया जाता है। मलयालम महीनों के पहले पांच दिन भी मंदिर के कपाट खोले जाते हैं। इनके अलावा पूरे साल मंदिर के दरवाजे आम दर्शनार्थियों के लिए बंद रहते हैं। यहां ज्यादातर पुरुष भक्त देखें जाते हैं। महिला श्रद्धालु बहुत कम होती हैं। अगर होतीं भी हैं तो बूढ़ी औरतें और छोटी कन्याएँ। इसका कारण यह है की श्री अयप्पन ब्रह्माचारी थे। इसलिए यहां पे छोटी कन्याएँ आ सकती हैं, जो रजस्वला न हुई हों या बूढ़ी औरतें, जो इससे मुक्त हो चुकी हैं। धर्म निरपेक्षता का अद्भुत उदाहरण यहाँ देखने को मिलता है कि यहां से कुछ ही दूरी पर एरुमेलि नामक जगह पर श्री अयप्पन के सहयोगी माने जाने वाले मुसलिम धर्मानुयायी वावर का मकबरा भी है, जहां मत्था टेके बिना यहां की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती।
                                    
                                    
                                        
                                        
                                        
                                        
                                    
                                    
                                        दो मतों के समन्वय के अलावा धार्मिक सहिष्णुता का एक निराला ही रूप यहां देखने को मिला। धर्म इंसान को व्यापक नजरिया देता है, इसकी भी पुष्टि हुई। व्यापक इस लिहाज से कि अगर मन में सच्ची आस्था हो, तो भक्त और ईश्वर का भेद मिट जाता है। यह भी कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर नैवेद्य से भरी पोटली (इरामुडी) लेकर यहां पहुंचे, तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। माला धारण करने पर भक्त स्वामी कहलाने लगता है और तब ईश्वर और भक्त के बीच कोई भेद नहीं रहता। वैसे श्री धर्मषष्ठ मंदिर में लोग जत्थों में आते हैं। जो व्यक्ति जत्थे का नेतृत्व करता है, उसके हाथों में इरामुडी रहती है। पहले पैदल मीलों यात्रा करने वाले लोग अपने साथ खाने-पीने की वस्तुएं भी पोटलियों में लेकर चलते थे। तीर्थाटन का यही प्रचलन था। अब ऐसा नहीं है पर भक्ति भाव वही है। उसी भक्ति भाव के साथ यहां करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। कुछ वर्ष पहले नवंबर से जनवरी के बीच यहां आने वाले लोगों की संख्या पांच करोड़ के करीब आंकी गई। यहां की व्यवस्था देखने वाले ट्रावनकोर देवासवम बोर्ड के अनुसार, इस अवधि में तीर्थस्थल ने केरल की अर्थव्यवस्था को 10 हजार करोड़ रुपये प्रदान किए हैं।