वृन्दावन, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक व ऐतिहासिक नगर है।

वृन्दावन श्री कृष्ण की कुछ अलौकिक बाल लीलाओं का केन्द्र माना जाता है।

मथुरा शहर मे सम्मिलित वृन्दावन मथुरा से १५ किमी कि दूरी पर स्थित वृन्दावन भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक व ऐतिहासिक नगर है। वृन्दावन भगवान श्रीकृष्ण की लीला से जुडा हुआ है। यह स्थान श्री कृष्ण की कुछ अलौकिक बाल लीलाओं का केन्द्र माना जाता है। यहाँ विशाल संख्या में श्री कृष्ण और राधा रानी के मन्दिर हैं। बांके विहारी जी का मंदिर, श्री गरुड़ गोविंद जी का मंदिर व राधावल्लभ लाल जी का, ठा.श्री पर्यावरण बिहारी जी का मंदिर बड़े प्राचीन हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ श्री राधारमण, श्री राधा दामोदर, राधा श्याम सुंदर, गोपीनाथ, गोकुलेश, श्री कृष्ण बलराम मन्दिर, पागलबाबा का मंदिर, रंगनाथ जी का मंदिर, प्रेम मंदिर, श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिर, अक्षय पात्र, वैष्णो देवी मंदिर। निधि वन आदि भी दर्शनीय स्थान है। यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंशपुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों के अस्तित्व का भान होता है।



श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन में निवास के लिए आये थे। विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है। विष्णुपुराण में भी वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। वर्तमान में टटिया स्थान, निधिवन, सेवाकुंज, मदनटेर,बिहारी जी की बगीची, लता भवन (प्राचीन नाम टेहरी वाला बगीचा) आरक्षित वनी के रूप में दर्शनीय हैं। कहते है कि वर्तमान वृन्दावन असली या प्राचीन वृन्दावन नहीं है। श्रीमद्भागवत के वर्णन तथा अन्य उल्लेखों से जान पड़ता है कि प्राचीन वृन्दावन तो गोवर्धन के निकट कहीं था। यह तब गोवर्धन-धारण की प्रसिद्ध कथा की स्थली वृन्दावन पारसौली (परम रासस्थली) के निकट था। अष्टछाप कवि महाकवि सूरदास इसी ग्राम में दीर्घकाल तक रहे थे। सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है-हम ना भई वृन्दावन रेणु। वृन्दावन को 'ब्रज का हृदय' कहते है जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाएँ की हैं। इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है। पद्म पुराण में इसे भगवान का साक्षात शरीर, पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय बताया गया है।


इसी कारण से यह अनादि काल से भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। चैतन्य महाप्रभु, स्वामी हरिदास, श्री हितहरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी भक्तों ने इसके वैभव को सजाने और संसार को अनश्वर सम्पति के रूप में प्रस्तुत करने में जीवन लगाया है। यहाँ आनन्दप्रद युगलकिशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की अद्भुत नित्य विहार लीला होती रहती है। 15वीं शती में चैतन्य महाप्रभु ने अपनी ब्रजयात्रा के समय वृन्दावन तथा कृष्ण कथा से संबंधित अन्य स्थानों को अपने अंतर्ज्ञान द्वारा पहचाना था। रासस्थली, वंशीवट से युक्त वृन्दावन सघन वनों में लुप्त हो गया था। कुछ वर्षों के पश्चात शाण्डिल्य एवं भागुरी ऋषि आदि की सहायता से श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने कहीं श्रीमन्दिर, कहीं सरोवर, कहीं कुण्ड आदि की स्थापनाकर लीला-स्थलियों का प्रकाश किया। किन्तु लगभग साढ़े चार हज़ार वर्षों के बाद ये सारी लीला-स्थलियाँ पुन: लुप्त हो गईं, महाप्रभु चैतन्य ने तथा श्री रूप-सनातन आदि अपने परिकारों के द्वारा लुप्त श्रीवृन्दावन और ब्रजमंडल की लीला-स्थलियों को पुन: प्रकाशित किया।

श्री चैतन्य महाप्रभु के पश्चात उन्हीं की विशेष आज्ञा से श्री लोकनाथ और श्री भूगर्भ गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी, श्री गोपालभट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथदास गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि गौड़ीय वैष्णवाचार्यों ने विभिन्न शास्त्रों की सहायता से, अपने अथक परिश्रम द्वारा ब्रज की लीला-स्थलियों को प्रकाशित किया है। वर्तमान वृन्दावन में प्राचीनतम मंदिर मुग़ल सम्राट अकबर के शासनकाल में राजा मानसिंह का बनवाया हुआ है। यह था। मूलत: यह मंदिर सात मंजिलों का था। ऊपर के दो खंड औरंगज़ेब ने तुड़वा दिए थे। किम्वदंती है इस मंदिर के सर्वोच्च शिखर पर जलने वाले दीप मथुरा से दिखाई पड़ते थे। यहाँ का अन्य विशाल मंदिर दाक्षिणत्य शैली में बना हुआ रंगजी के नाम से प्रसिद्ध है। इसके गोपुर बड़े विशाल एवं भव्य हैं। यह मंदिर दक्षिण भारत के श्रीरंगम के मंदिर की अनुकृति जान पड़ता है। वृन्दावन के दर्शनीय स्थल हैं- निधिवन (हरिदास का निवास कुंज), कालियादह, सेवाकुंज आदि।


गुरु नानक ने जब जनेऊ पहनने से इनकार

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक की 551वीं जयंती गुरु परब है. उनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था.

नानक ने सिख धर्म में हिन्दू और इस्लाम दोनों की अच्छाइयों को शामिल किया. हालांकि सिख धर्म हिन्दू और इस्लाम का महज संकलन नहीं है.

गुरु नानक एक मौलिक आध्यात्मिक विचारक थे. उन्होंने अपने विचारों को ख़ास कविताई शैली में प्रस्तुत किया. यही शैली सिखों के धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब की भी है.

गुरु नानक के जीवन के बारे में बहुत कुछ लोगों को पता नहीं है.
हालांकि सिख परंपराओं और जन्म सखियों में उनके बारे काफ़ी जानकारियां हैं. गुरु नानक के अहम उपदेश भी हम तक जन्म सखियों के ज़रिए ही पहुंचे हैं.

राजस्थान के करौली जिले में मदनमोहन जी का, जयपुर में गोविंददेव जी और गोपीनाथ जी का मंदिर है।

कृष्ण के तीन चित्र एक ही पत्थर से बने थे मुखरविंद गोविंददेव जी, वाकस्थल गोपीनाथ जी और चरण मदनमोहन जी।

Understanding the Importance of Christian Art as a Gateway to Religion Truths

Christianity, which is sufficient in artistic expressions and symbols, gives its members a way of visually expressing their faith’s deepest truths. Christian art has been a pathway for conveying the exegesis of theological concepts, biblical accounts and spiritual insights from time immemorial when icons were first made until the Renaissance. This paper delves into Christian art and symbolism to uncover the layers beneath this imagery as well as explore its profound significance within Christianity.

The Role of Art in Christian Tradition: Art has always been an important part of Christian worship since ancient times. Frescoes with scenes depicting Christ’s life, martyrs and stories from the Bible were painted on walls by Christians in Roman catacombs. Those works of art were used to teach churchgoers who could not read but wanted to know more about Christianity by showing them what it was all about.

Religious Symbolism in Art: Among the attributes of Christian Art is symbolic representation of spiritual aspects and theological ideas. Symbolism enables artists to make use of visual language to express difficult concepts, which can be understood across different languages and cultures. Some symbols have been so ingrained into the collective memory of Christians throughout history that they continue to serve as powerful reminders of faith.

The most iconic symbol in Christian art is the cross, which signifies Jesus Christ’s crucifixion at its epicenter. The meaning behind the cross extends beyond just a reminder of Christ’s death on behalf of humanity; it also serves as a constant symbol for hope for redemption and eternal life. Made from fine wood carvings, stained glass windows or huge sculptures, crosses have always stood as one strong signpost for forgiveness and divine love.

The dove, symbol of the Holy Spirit is another common symbol in Christian art. During the depiction of Jesus’ immersion, the dove descends from heaven to symbolize the Spirit’s presence upon Christ. The dove also connotes peace, purity and renewal of creation as indicated in Noah’s ark bible story and its manifestation through a dove carrying an olive branch.

Other symbols that frequently appear in Christian art include fish which represent Christ and his followers, lambs symbolizing Christ’s sacrificial death and anchors that signify unshakable faith during trying times. Each carries deep significance and multiple layers of meaning so that they can always allow Christians to reflect on their faith mysteries in order to be closer to God.