बद्रीनाथ मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है।

यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह चार धामों में से एक मंदिर है 

बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक यह एक प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण 7वीं-9वीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। मन्दिर के नाम पर ही इसके इर्द-गिर्द बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य, गढ़वाल क्षेत्र में, समुद्र तल से 3,133 मीटर (10,279 फ़ीट) की ऊँचाई पर स्थित है। जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक है; 2012 में यहाँ लगभग 10.6 लाख तीर्थयात्रियों का आगमन दर्ज किया गया था। बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी 1 मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। यद्यपि, यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, "रावल" कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं।



बद्रीनाथ मन्दिर को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार अधिनियम – 30/1948 में मन्दिर अधिनियम – 16/1939 के तहत शामिल किया गया था, जिसे बाद में "श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम" के नाम से जाना जाने लगा। वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा नामित एक सत्रह सदस्यीय समिति दोनों, बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मन्दिरों, को प्रशासित करती है। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर, जहाँ ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह विष्णु को समर्पित 108 दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है। ऋषिकेश से यह 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। मन्दिर तक आवागमन सुलभ करने के लिए वर्तमान में चार धाम महामार्ग तथा चार धाम रेलवे जैसी कई योजनाओं पर कार्य चल रहा है। हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से उल्लेखित किया गया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था।


त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को "योग सिद्ध", और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे "मणिभद्र आश्रम" या "विशाला तीर्थ" कहा गया है। कलियुग में इस धाम को "बद्रिकाश्रम" अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। स्थान का यह नाम यहाँ बहुतायत में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था। एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है। बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है - मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।

पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई, तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया। यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी, और नर-नारायण ने ही क्रमशः अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था। महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं।


Developing Minds: The Changing Capabilities of Learning

Overview: The Entrance to Enlightenment Education is the key that opens the door to a world of knowledge and enlightenment. It is frequently referred to as the cornerstone of progress and development. This blog post delves into the complex world of education, examining its transformative potential, changing approaches, and essential role in forming people and societies.

देहलवी को "रोशन चिराग-ए-दिल्ली" की उपाधि दी गई थी, जिसका उर्दू में अर्थ होता है, "दिल्ली का चिराग़"।

नसीरुद्दीन महमूद चिराग-देहलावी 14वीं सदी के रहस्यवादी-कवि और चिश्ती संप्रदाय के सूफी संत थे। वह सूफी संत, निजामुद्दीन औलिया और बाद में उनके उत्तराधिकारी के शिष्य थे। वह दिल्ली से चिश्ती संप्रदाय के अंतिम महत्वपूर्ण सूफी थे।