चारभुजा मन्दिर मेवाड़ कुम्भलगढ़ राजस्थान का ऐतिहासिक एवं प्राचीन हिन्दू मन्दिर है।

यह भारतीय राज्य राजस्थान के राजसमंद ज़िले की कुम्भलगढ़ तहसील के गढ़बोर गांव में स्थित है।

चारभुजा जी एक ऐतिहासिक एवं प्राचीन हिन्दू मन्दिर है जो भारतीय राज्य राजस्थान के राजसमंद ज़िले की कुम्भलगढ़ तहसील के गढ़बोर गांव में स्थित है। उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 32 कि. मी.  की दूरी पर यह मेवाड़ का जाना–माना तीर्थ स्थल है, जहां चारभुजा जी की बड़ी ही पौराणिक एवं चमत्कारिक प्रतिमा है। मेवाड़ के सांवलियाजी मंदिर, केशरियानाथ जी मंदिर, एकलिंगनाथ जी मंदिर, श्रीनाथजी मंदिर, द्वारिकाधीशजी मंदिर, रूपनारायणजी मंदिर व चारभुजानाथ मंदिर सुप्रसिद्ध हैं। इस मन्दिर का निर्माण राजपूत शासक गंगदेव ने करवाया था। चारभुजा के शिलालेख के अनुसार सन् १४४४ ई।  (वि. स.  १५०१) में खरवड़ शाखा के ठाकुर महिपाल व उसके पुत्र रावत लक्ष्मण ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। एक मन्दिर में मिले शिलालेख के अनुसार यहां इस क्षेत्र का नाम "बद्री" था जो कि बद्रीनाथ से मेल खाता है।



पौराणिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव को हिमालय में तपस्या कर सद्गति प्राप्त करने का आदेश देते हुए स्वयं गौलोक जाने की इच्छा जाहिर की, तब उद्धव ने कहा कि मेरा तो उद्धार हो जाएगा परंतु आपके परमभक्त पांडव व सुदामा तो आपके गौलोक जाने की ख़बर सुनकर प्राण त्याग देंगे। ऐसे में श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से स्वयं व बलराम की मूर्तियां बनवाईं, जिसे राजा इन्द्र को देकर कहा कि ये मूर्तियां पांडव युधिष्ठिर व सुदामा को सुपुर्द करके उन्हें कहना कि ये दोनों मूर्तियां मेरी है और मैं ही इनमें हूं। प्रेम से इन मूर्तियों का पूजन करते रहें, कलियुग में मेरे दर्शन व पूजा करते रहने से मैं मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करूंगा। इन्द्र देवता ने श्रीकृष्ण की मूर्ति सुदामा को प्रदान की और पांडव व सुदामा इन मूर्तियों की पूजा करने लगे। वर्तमान में गढ़बोर में चारभुजा जी के नाम से स्थित प्रतिमा पांडवों द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति और सुदामा द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति रूपनारायण के नाम से सेवंत्री गांव में स्थित है।


कहा जाता है कि पांडव हिमालय जाने से पूर्व मूर्ति को जलमग्न करके गए थे ताकि इसकी पवित्रता को कोई खंडित न कर सके। गढ़बोर के तत्कालीन राजपूत शासक गंगदेव को चारभुजानाथ ने स्वप्न में आकर आदेश दिया कि पानी में से निकालकर मूर्ति मंदिर बनाकर स्थापित करो। राजा ने ऐसा ही किया, उसने जल से प्राप्त मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवा दी। कहा जाता है कि मुग़लों के अत्याचारों को देखते हुए मूर्ति को कई बार जलमग्न रखा गया है। महाराणा मेवाड़ ने चारभुजानाथ के मंदिर को व्यवस्थित कराया था। कहा जाता है कि एक बार मेवाड़ महाराणा उदयपुर से यहां दर्शन को आए लेकिन देर हो जाने से पुजारी देवा ने भगवान चारभुजाजी का शयन करा दिया और हमेशा महाराणा को दी जाने वाली भगवान की माला खुद पहन ली। इसी समय महाराणा वहां आ गए। माला में सफेद बाल देखकर पुजारी से पूछा कि क्या भगवान बूढे़ होने लगे है? पुजारी ने घबराते हुए हां कह दिया। महाराणा ने जांच का आदेश दे दिया। दूसरे दिन भगवान के केशों में से एक केश सफेद दिखाई दिया।

इसे ऊपर से चिपकाया गया केश मानकर जब उसे उखाडा़ गया तो श्रीविग्रह (मूर्ति) से रक्त की बूंदें निकल पड़ी। इस तरह भक्त देवा की भगवान ने लाज रख दी। उसी रात्रि को महाराणा ने सपना देखा जिसमें भगवान ने कह दिया कि भविष्य में कोई भी महाराणा दर्शन के लिए गढ़बोर न आवे तब से पंरपरा का निर्वाह हो रहा है, यहां मेवाड़ महाराणा नहीं आते है। लेकिन महाराणा बनने से पूर्व युवराज के अधिकार से इस मंदिर पर आकर जरूर दर्शन करते है और फिर महाराणा की पदवी ली जाती है। इसी गढ़बोर पर कभी रावत-राजपूत नाम से पहचान रखने वाले क्षत्रियों के पूर्वज विहलजी चौहान के अनूठे शौर्य पर मेवाड़ के शासक रावल जैतसी ने विहलजी को रावत का खिताब व गढ़बोर का राज्य इनाम में दिया था। आज भी विहलजी चौहान का दुर्ग चारभुजा से सेवंत्री जाने वाले मार्ग पर खण्डहर हालात में विद्यमान है। गढ़बोर में चारभुजानाथ का प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की एकादशी (जलझुलनी एकादशी) को विशाल मेला लगता है। चारभुजा गढ़बोर में हर वर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। यहां पर आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।


भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक मुक्तेश्वर मंदिर भी आता है जो भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित है।

मुक्तेश्वर मंदिर इस दुनिया के निर्माता भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर मुक्तेश्वर में सबसे ऊंचे स्थान पर स्थित है। 

इस्लाम धर्म में ईद-ए-मिलाद नाम का मुस्लिम त्यौहार भी आता है, इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार इसे एक पवित्र महीना रबी-उल-अव्वल माना जाता है

ईद-ए-मिलाद के दिन पैगंबर मुहम्मद ने 12 तारीख को अवतार लिया था, इसी याद में यह त्योहार जिसे हम ईद-ए-मिलाद, उन-नबी या बारावफात मनाया जाता है।

Harmonious Tour of Christian Worship and Music

Christian music and worship have always been part of the faith for centuries, developing alongside shifts in culture, technology and theological perspectives. This article is a melodious journey through the development of Christian music styles and genres by delving into how profoundly it has impacted on Christian worship and spiritual expression. From timeless hymns and psalms to contemporary Christian songs, we explore how music has brought added value to worship experience as well as fostered deeper connection with divine.

Evolution of Christian Music Styles and Genres:Christian music has had an interesting transformation reflecting the diverse cultures that influenced them during different periods. We will follow the advances made in Christian music from its earliest age starting from Gregorian chants, medieval hymns until polyphony emerged and choral compositions were created during Renaissance. The Protestant Reformation marked a breakthrough for congregational singing which led to the development of hymnals as well as the growth of congregational hymnody. In the modern times however, Christian music has diversified into various categories including classical, gospel, contemporary Christian, praise and worship or even Christian rock.

रामेश्वरम हिंदुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है, यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है।

यह तीर्थ हिंदुओं के चार धामों में से एक है, इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।

Khalsa Legacy of Guru Gobind Singh Ji, the Teachings of Guru Nanak Dev Ji, and the Miri-Piri Concept"

Sikhism, a buoyant and egalitarian religion from the Indian subcontinent, is rooted in the teachings of spiritual leaders called Gurus. Among these gurus, Guru Nanak Dev Ji and Guru Gobind Singh Ji are especially important to Sikh self-identity, values, and beliefs due to their profound teachings. This essay will discuss the lives as well as lessons left by each guru individually; it will focus on three events such as: the spiritual awakening of Guru Nanak Dev Ji; Miri-Piri concept introduced by Guru Hargobind Sahib Ji; transformative creation Khalsa community under leadership of Guru Gobind Singh ji.

Guru Nanak Dev Ji: Life and TeachingsBorn in 1469 AD (now part of Pakistan), Guru Nanak Dev Ji was not only the founder of Sikhism but also its first among ten gurus. He lived a life that was marked by spiritual enlightenment, deep compassion for all living beings and strong commitment towards ensuring unity among people.

Early Years and Wisdom: Mehta Kalu Chand or Mehta Kalu (father) and Mata Tripta (mother) gave birth to him at Talwandi which is now known as Nankana Sahib. Since his early years, he exhibited an introspective character; even then he had been challenging conventional wisdom while showing great concern over theological matters.