पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर एक हिन्दू मन्दिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है।

यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है।

जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मन्दिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। श्री जगन्नथपुरी पहले नील माघव के नाम से पुजे जाते थे। जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पुजा किया करते थे। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे। मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र और ध्वज।



चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ इस मंदिर के भीतर हैं, इस का प्रतीक है। गंग वंश के हाल ही में अन्वेषित ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मन्दिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। मन्दिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल (1078 - 1148) में बने थे। फिर सन 1197 में जाकर ओडिआ शासक अनंग भीम देव ने इस मन्दिर को वर्तमान रूप दिया था। मन्दिर में जगन्नाथ अर्चना सन 1558 तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बन्द करा दी, तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया। बाद में, रामचन्द्र देब के खुर्दा में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने पर, मन्दिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई। इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा।


उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं। चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरी मे निकले ,पुरी के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे। 

इसिलिये अलग रथो मे रखा गया) शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है]. कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था। महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।


सिख धर्म के 5वें गुरु अर्जन देव साहिब जी आत्म-बलिदान की एक महान आत्मा थे, जो सर्वधर्म समभाव के साथ-साथ मानवीय आदर्शों को कायम रखने के कट्टर समर्थक थे।

गुरु अर्जन देव  जी का जन्म अमृतसर के गोइंदवाल में वैशाख वादी 7 (संवत 1620 में 15 अप्रैल 1563) को सिख धर्म के चौथे गुरु, गुरु रामदासजी और माता भानीजी के यहाँ हुआ था।

Hinduism's Ageless Wisdom: Handling Age-Old Customs in the Contemporary World

Exposing the True Nature of Hinduism: One of the world's oldest religions, Hinduism is a vast and ancient tapestry of spirituality, philosophy, and cultural richness. Hinduism, which has its roots in the holy books known as the Vedas, has grown to embrace complexity and diversity over millennia with grace. In this investigation, we set out to dissect Hinduism's fundamental beliefs and comprehend how its ageless wisdom still has relevance today.

Ayodhya, a city in India's heartland, is be­loved by many Hindus. ­

Ayodhya: Home of Lord Rama's Birth Ayodhya, by the­ Sarayu River, is Lord Rama's rumored birthplace. He­ is respected in Hinduism. The­ Ramayana, a chief Hindu mythology text, tells Lord Rama's life­. It highlights values like righteousne­ss and loyalty. So, Ayodhya has immense spiritual significance for many Hindus.

Ayodhya, known worldwide be­cause of a crucial conflict concerning a spot Hindus think is Lord Rama's birthplace. The­ Babri Masjid, a 16th-century building, was on this land. It sparked a heate­d lawsuit and societal clash. The dispute gre­w severe in 1992 upon the­ Babri Masjid’s demolition. It caused religious strife­ and ignited a court fight lasting many years.

 

 

श्रीमुखलिंगेश्वर मंदिर आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के मुखलिंगम के गांव में स्थित शिव मंदिर है।

इस मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा शासकों द्वारा किया गया था जिन्होंने 8 वीं शताब्दी ईस्वी में कलिंग पर शासन किया था।