गोरखनाथ मन्दिर में मकर संक्रान्ति के अवसर पर एक माह चलने वाला विशाल मेला लगता है जो 'खिचड़ी मेला' के नाम से प्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अंतर्गत विभिन्न संप्रदायों और मत-मतांतरों में 'नाथ संप्रदाय' का प्रमुख स्थान है। संपूर्ण देश में फैले नाथ संप्रदाय के विभिन्न मंदिरों तथा मठों की देख रेख यहीं से होती है। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार सच्चिदानंद शिव के साक्षात् स्वरूप 'श्री गोरक्षनाथ जी' सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, द्वापर युग में हरमुज, द्वारिका के पास तथा कलियुग में गोरखमधी, सौराष्ट्र में आविर्भूत हुए थे। चारों युगों में विद्यमान एक अयोनिज अमर महायोगी, सिद्ध महापुरुष के रूप में एशिया के विशाल भूखंड तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने योग से कृतार्थकिया। नाथपंथी या नाथवंशी का इतिहास-नाथपंथी या नाथवंशी यह मूल रूप से नाथ समाज की श्रेष्ठ जाति जोगी समाज से होते हैं! या यूं कह तो शिव के वंशज होते है जो शिव शैवनाथ ब्राह्मण के नाम से भी जाने जाते हैं।
यह एशिया में नेपाल में 20%, भारत 13.5%, भूटान 3% नाथ लोग मिलते हैं पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, नेपाल, तिब्बत, बांग्लादेश और रंगून में नाथवंशियो के अनुयाई को मानने वाली जो लोग होते हैं वे भी एक रूप से शैव संप्रदाय से ही जुड़े हुए होते हैं क्योंकि महावीर और बुद्ध नाथ समाज और नाथ संप्रदाय का एक सनातन धर्म के अनुसार एक प्राचीन ऐतिहास रहा है जिसका कहीं भी बहुत ही कम उल्लेख किया है क्योंकि वैष्णव ब्राह्मण ने नाथो इतिहास को लोगों से छुपाया है नाथ समाज के लोग सिद्ध महापुरुष और वीर लोग होते थे परम तपस्वी ज्ञानी कल का भी रुख मोड़ देने वाले ऐसे तपस्वी होते थे क्या-क्या में अपने मुख से कोई वचन कह देते तो वह सत्य बन जाती थी इतना तेज उनकी वाणी में होता था जब राजा महाराजाओं के यहां संता नहीं होती थी। गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर में अनवरत योग साधना का क्रम प्राचीन काल से चलता रहा है। ज्वालादेवी के स्थान से परिभ्रमण करते हुए 'गोरक्षनाथ जी' ने आकर भगवती राप्ती के तटवर्ती क्षेत्र में तपस्या की थी और उसी स्थान पर अपनी दिव्य समाधि लगाई थी, जहाँ वर्तमान में 'श्री गोरखनाथ मंदिर (श्री गोरक्षनाथ मंदिर)' स्थित है।
नाथ योगी सम्प्रदाय के महान प्रवर्तक ने अपनी अलौकिक आध्यात्मिक गरिमा से इस स्थान को पवित्र किया था, अतः योगेश्वर गोरखनाथ के पुण्य स्थल के कारण इस स्थान का नाम 'गोरखपुर' पड़ा। महायोगी गुरु गोरखनाथ की यह तपस्याभूमि प्रारंभ में एक तपोवन के रूप में रही होगी और जनशून्य शांत तपोवन में योगियों के निवास के लिए कुछ छोटे- छोटे मठ रहे, मंदिर का निर्माण बाद में हुआ। आज हम जिस विशाल और भव्य मंदिर का दर्शन कर हर्ष और शांति का अनुभव करते हैं, वह ब्रह्मलीन महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज जी की ही कृपा से है। वर्तमान पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ जी महाराज के संरक्षण में श्री गोरखनाथ मंदिर विशाल आकार-प्रकार, प्रांगण की भव्यता तथा पवित्र रमणीयता को प्राप्त हो रहा है। पुराना मंदिर नव निर्माण की विशालता और व्यापकता में समाहित हो गया है। भारत में मुस्लिम शासन के प्रारंभिक चरण में ही इस मंदिर से प्रवाहित यौगिक साधना की लहर समग्र एशिया में फैल रही थी। नाथ संप्रदाय के योग महाज्ञान की रश्मि से लोगों को संतृप्त करने के पवित्र कार्य में गोरक्षनाथ मंदिर की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में गोरक्षनाथ मंदिर का अच्छे ढंग से जीर्णोद्धार किया गया।
तभी से निरन्तर मंदिर के आकार- प्रकार के संवर्धन, समलंकरण व मंदिर से संबन्धित उसी के प्रांगण में स्थित अनेकानेक विशिष्ट देव स्थानों के जीर्णोद्धार, नवनिर्माण आदि में गोरक्षनाथ मंदिर की व्यवस्था संभाल रहे महंतों का ख़ासा योगदान रहा है। क़रीब 52 एकड़ के सुविस्तृत क्षेत्र में स्थित इस मंदिर का रूप व आकार-प्रकार परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलता रहा है। वर्तमान में गोरक्षनाथ मंदिर की भव्यता और पवित्र रमणीयता अत्यन्त कीमती आध्यात्मिक सम्पत्ति है। इसके भव्य व गौरवपूर्ण निर्माण का श्रेय महिमाशाली व भारतीय संस्कृति के कर्णधार योगिराज महंत दिग्विजयनाथ जी व उनके सुयोग्य शिष्य राष्ट्रसंत ब्रम्हलीन महंत अवैद्यनाथ जी महाराज को है, जिनके श्रद्धास्पद प्रयास से भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में मौलिक इस मंदिर का निर्माण हुआ। मान्यता है कि मंदिर में गोरखनाथ जी द्वारा जलायी अखण्ड ज्योति त्रेतायुग से आज तक अनेक झंझावातों के बावजूद अखण्ड रूप से जलती आ रही है। यह ज्योति आध्यात्मिक ज्ञान, अखण्डता और एकात्मता का प्रतीक है। यह गोरखनाथ मंदिर परिसर में विशेष प्रेरणास्रोत का काम करती है। इसमें गोरखनाथ जी द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि आज भी विद्यमान है।