जैन धर्म में श्रुत पंचमी का महत्व

श्रुत पंचमी दुर्लभ जैन ग्रंथों और शास्त्रों के संरक्षण का पर्व

जैन धर्म में 'श्रुत पंचमी' का पर्व ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन पहली बार भगवान महावीर के दर्शन को लिखित शास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया गया था। पहले भगवान महावीर केवल उपदेश देते थे और उनके प्रमुख शिष्य (गांधार) इसे सभी को समझाते थे, क्योंकि तब महावीर के भाषण लिखने की कोई परंपरा नहीं थी। सुनने के बाद ही उन्हें याद किया गया, इसलिए उनका नाम 'श्रुत' पड़ा। जैन समाज में इस दिन का विशेष महत्व है। इस दिन पहली बार जैन धर्मग्रंथों की रचना की गई थी। भगवान महावीर द्वारा दिए गए ज्ञान को श्रुत परंपरा के तहत कई आचार्यों ने जीवित रखा।



गुजरात में गिरनार पर्वत की चंद्र गुफा में धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबली ऋषियों को सैद्धांतिक शिक्षा दी, जिसे सुनकर ऋषियों ने एक ग्रंथ की रचना की और उसे ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को भेंट किया। एक किवदंती के अनुसार 2,000 वर्ष पूर्व जैन धर्म के आचार्य रत्न परम पूज्य 108 संत को अचानक यह अहसास हुआ कि उनके द्वारा अर्जित जैन धर्म का ज्ञान उनकी वाणी से ही सीमित है। उन्होंने सोचा कि यदि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम हो गई तो ज्ञान की वाणी नहीं बचेगी, ऐसे में मेरी समाधि लेने से जैन धर्म का सारा ज्ञान समाप्त हो जाएगा।


फिर धर्मसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबली की सहायता से शतखंडगम ग्रंथ की रचना की, इस ग्रंथ में जैन धर्म से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। इसे ज्येष्ठ शुक्ल की पंचमी को प्रस्तुत किया गया था। इस शुभ अवसर पर कई देवताओं ने णमोकार महामंत्र से 'शतखंडगम' की पूजा की। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इस दिन से श्रुत परंपरा को एक लिखित परंपरा के रूप में शुरू किया गया था। उस ग्रंथ को 'शतखंडगम' के नाम से जाना जाता है। इस दिन से श्रुत परंपरा को शास्त्र परंपरा के रूप में शुरू किया गया था, इसलिए इस दिन को श्रुत पंचमी के रूप में जाना जाता है।

इसका दूसरा नाम 'प्राकृत भाषा दिवस' है। श्रुत पंचमी के दिन प्राकृत, संस्कृत, प्राचीन भाषाओं में हस्तलिखित प्राचीन मूल शास्त्रों को शास्त्रों से निकालकर, शास्त्रों की सफाई कर उन्हें नए वस्त्रों में लपेटकर प्राचीन शास्त्रों की रक्षा की दृष्टि से किया जाता है। और भगवान की वेदी के पास बैठकर इन ग्रंथों की पूजा करें, क्योंकि इस दिन जैन शास्त्रों को लिखकर उनकी पूजा की जाती थी, क्योंकि इससे पहले आचार्य परंपरा के माध्यम से जैन ज्ञान मौखिक रूप से चल रहा था। इस दिन जैन भक्त पीले वस्त्र धारण कर जिनवाणी की शोभा यात्रा निकाल कर तथा साथ ही समाज के लोगों को अप्रकाशित दुर्लभ ग्रंथों/शास्त्रों के प्रकाशन हेतु यथासम्भव दान देकर उत्सव मनाते हैं।


कामाक्षी अम्मन मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम तीर्थ शहर में स्थित त्रिपुरा सुंदरी के रूप में देवी कामाक्षी को समर्पित एक हिंदू मंदिर है।

कामाक्षी अम्मन मंदिर आदि गुरु शंकराचार्य का नाम भी जुड़ा है।

Path to Wisdom From Prince to Buddha

One of the greatest changes in religious and philosophical history is the journey from being a prince to becoming a Buddha. At the core of Buddhism, this account began in ancient India resulting in what it is today, being practiced all over the globe with countless cultures affected. In discussing this, we will be taking a look into Siddhartha Gautama’s life; he was also known as “Buddha” which means awakened one. It is not just a biography but an allegory for the human search for illumination and release from sorrow.

The tale commences more than 2500 years ago in the foothills of the Himalayas present-day Nepal. As an infant prince, Siddhartha Gautama had been born into great luxury with all its trappings by his father who was himself king. Nonetheless, Siddhartha did not live oblivious to some human realities such as aging, illness, or death despite living amidst luxuriousness. The encounter with this suffering sowed seeds in him and made him start seeking salvation.

 

Bhagavad Gita, Chapter 2, Verse 16

Hindi (हिन्दी):
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

English:
nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ,
ubhayorapi dṛiṣhṭo'ntastvanayos tattvadarśhibhiḥ.

Meaning (Hindi):
उस अदृश्य आत्मा का कोई नाश नहीं होता है और सत्ता का कोई अभाव नहीं होता। ये दोनों विचारों को तत्वज्ञानी पुरुषों ने देखा है।