सारनाथ, काशी अथवा वाराणसी के 10 किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था जिसे "धर्म चक्र प्रवर्तन" का नाम दिया जाता है और जो बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ था। यह स्थान बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों में से एक है (अन्य तीन हैं: लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर)। इसके साथ ही सारनाथ को जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में भी महत्व प्राप्त है। जैन ग्रन्थों में इसे 'सिंहपुर' कहा गया है और माना जाता है कि जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म यहाँ से थोड़ी दूर पर हुआ था। यहां पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहां सावन के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। सारनाथ में अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार इत्यादि दर्शनीय हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न यहीं के अशोक स्तंभ के मुकुट की द्विविमीय अनुकृति है। मुहम्मद गोरी ने सारनाथ के पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया था। सन 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई का काम प्रारम्भ किया। उसी समय बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहास के विद्वानों का ध्यान इधर गया। वर्तमान में सारनाथ एक तीर्थ स्थल और पर्यटन स्थल के रूप में लगातार वृद्धि की ओर अग्रसर है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे।
उस समय इसका नाम 'ऋषिपत्तन' और 'मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था। सम्राट अशोक के समय में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहाँ का 'धमेक स्तूप' सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया। इसका प्राचीन नाम ऋषिपतन (इसिपतन या मृगदाव) (हिरनों का जंगल) था। ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ से है जिसका आशय है वह स्थान जहाँ किसी एक बुद्ध ने गौतम बुद्ध भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। मृगों के विचरण करने वाले स्थान के आधार पर इसका नाम मृगदाव पड़ा, जिसका वर्णन निग्रोधमृग जातक में भी आया है। आधुनिक नाम ‘सारनाथ’ की उत्पत्ति ‘सारंगनाथ’ (मृगों के नाथ) अर्थात् गौतम बुद्ध से हुई। जिसका संबंध बोधिसत्व की एक कथा से भी जोड़ा जाता है। वोधिसत्व ने अपने किसी पूर्वजन्म में, जब वे मृगदाव में मृगों के राजा थे, अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहने लगे।
दयाराम साहनी के अनुसार शिव को भी पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण यह स्थान शिवोपासना की भी स्थली बन गया। इस तथ्य की पुष्टि सारनाथ में, सारनाथ नामक शिवमंदिर की वर्तमानता से होती है। बुद्ध के प्रथम उपदेश (लगभग 533 ई.पू.) से 300 वर्ष बाद तक का सारनाथ का इतिहास अज्ञात है: क्योंकि उत्खनन से इस काल का कोई भी अवशेष नहीं प्राप्त हुआ है। सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल में दृष्टिगत होता है। उसने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया। अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन-काल में पुन: सारनाथ अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग राज्य की स्थापना हुई, लेकिन सारनाथ से इस काल का कोई लेख नहीं मिला। प्रथम शताब्दी ई. के लगभग उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के साथ ही एक बार पुन: बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने यहाँ एक बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का केंद्र था।
किंतु, जैसे गया आदि और भी कई स्थानों के इतिहास से प्रमाणित होता है बात इसकी उल्टी भी हो सकती है, अर्थात बौद्ध धर्म के पतन के पश्चात ही शिव की उपासना यहाँ प्रचलित हुई हो। जान पड़ता है कि जैसे कई प्राचीन विशाल नगरों के उपनगर या नगरोद्यान थे (जैसे प्राचीन विदिशा का साँची, अयोध्या का साकेत आदि) उसी प्रकार सारनाथ में मूलत: ऋषियों या तपस्वियों के आश्रम स्थित थे जो उन्होंने काशी के कोलाहल से बचने के लिए, किंतु फिर भी महान नगरी के सान्निध्य में, रहने के लिए बनाए थे। सारनाथ के इतिहास में सबसे गौरवपूर्ण समय गुप्तकाल था। उस समय यह मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत में कला का सबसे बड़ा केंद्र था। हर्ष के शासन-काल में ह्वेन त्सांग भारत आया था। उसने सारनाथ को अत्यंत खुशहाल बताया था। हर्ष के बाद कई सौ वर्ष तक सारनाथ विभिन्न शासकों के अधिकार में था लेकिन इनके शासनकाल में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो पाई। महमूद गजनवी (1017 ई.) के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची। पुन: 1026 ई. में सम्राट महीपाल के शासन काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल नामक दो भाइयों ने सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का भी उद्धार किया। गाहड़वाल वेश के शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में एक विहार बनवाया था। उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है। इसके पश्चात् सारनाथ की वैभव का अंत हो गया।